Tuesday, January 26, 2010

चलो अब जाने दो..

चलो अब जाने दो..
हम जंगली लोगों का मेट्रो में दम बहुत घुटता है..

ना वो भाषा अपनी
ना वो लोग अपने..
ना हम उन्हें समझते हैं
ना हम उनकी समझ में आते हैं..

बस दम बहुत घुटता है..

ना  हमारी सर्दी यहाँ ..
ना हमारे सूरज की धुप..
यहाँ  कोहरा भी तो ठण्ड से कम
और pollution से ज्यादा होता है..

बस दम बहुत घुटता है...

सब्जियां तो सारी हैं यहाँ
पर   मिटटी की खुशबू  का स्वाद कहीं छोड़ आये हैं..
ना अपने झरने और कुए का मीठा पानी यहाँ
यहाँ  वो भी प्लास्टिक की bottles में आता है..

हाँ, दम बहुत घुट जाता है...

ना हमारे रंगीले पंच्छी यहाँ ..
बस कुछ कौवे और कबूतर उड़ उड़  आते हैं..
ना हमारे खुले आसमान में चमकते तारे यहाँ..
बस aeroplane के lights टिमटिमाते हैं..

इस कोहरे भरे माहौल में...बस दम बहुत घुट जाता है...

रोज़ हमारे घर को आशियाना अपना बनाते हैं
कुछ पौधे हमारे जंगल से..कुछ अपने रंग के cushion
एक यहाँ , एक वहां लगाते हैं
पर चौदवीं मंजिल के safety grill से
जब आसमान को दिल तकता है...
तो कुछ पिंजरे सा ही लगता है..
हाँ दम बहुत घुटता है...

हर दिन हम यहाँ
कुछ कहानी खुद को सुनाते हैं..
आंसूं भी अब पराये हुए..
देखें कौन हमें , हम किसे अपनाते हैं..

पर दम आज बहुत घुटता है...बस दम बहुत घुटता है...