कभी वापस आऊं
तो दरवाज़े पर तुम मिलो
उस शायरी की तरह
जो कुछ मौकों पर
वापस आ जाती है लबों पर
तुम भी यही सोचते हो ना ?
पता नहीं साल कहाँ जाते हैं
कहाँ जाते हैं ख़्वाब
बस लम्हे होते हैं
फ़िर उन लम्हों की यादें
फिर धीरे धीरे लम्हें नहीं बनते
हर लम्हा हम कहीं खो जो जाते हैं
राहों में , दफ्तर में , टीवी में, पेपर में
लम्हे नहीं बना पाते जिसके ख्वाब बुने थे
रिवाज़ों को तोड़ने की फ़िराक़ है आज
लम्हों को बना लें
अब तुम आओ तो दरवाज़े पर मिलूंगी
सिज़र के साथ
तो दरवाज़े पर तुम मिलो
उस शायरी की तरह
जो कुछ मौकों पर
वापस आ जाती है लबों पर
तुम भी यही सोचते हो ना ?
पता नहीं साल कहाँ जाते हैं
कहाँ जाते हैं ख़्वाब
बस लम्हे होते हैं
फ़िर उन लम्हों की यादें
फिर धीरे धीरे लम्हें नहीं बनते
हर लम्हा हम कहीं खो जो जाते हैं
राहों में , दफ्तर में , टीवी में, पेपर में
लम्हे नहीं बना पाते जिसके ख्वाब बुने थे
रिवाज़ों को तोड़ने की फ़िराक़ है आज
लम्हों को बना लें
अब तुम आओ तो दरवाज़े पर मिलूंगी
सिज़र के साथ